लेख-निबंध >> बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्यगोपीचंद नारंग
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बींसवी शताब्दी में उर्दू साहित्य उर्दू में संकलित समालोचनात्मक निबंधों के संग्रह बींसवी सदी में उर्दू अदब का हिन्दी अनुवाद है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बीसवीं शताब्दी में उर्दू साहित्य उर्दू में संकलित समालोचनात्मक निबंधों
के संग्रह बीसवीं सदी में उर्दू अदब का हिन्दी अनुवाद है, जिसका संपादन
उर्दू साहित्य के प्रख्यात अध्येता आलोचक और विचारक प्रो. गोपीचंद नारंग
ने किया था। इसमें शामिल निबंधों में बीसवीं शताब्दी के दौरान उर्दू
साहित्य में आई तब्दीलियों और विकास का ज़ायजा लिया है। साहित्य के पूर्व
और नई विधाओं का विकास, वैचारिक अवधारणाओं की उपस्थिति और प्रभाव,
साहित्यिक आंदोलनों-प्रगतिशीलता, आधुनिकता एवं उत्तर आधुनिकता की उर्दू
साहित्य पर प्रभावकारी भूमिका की समुचित पड़ताल करने वाले निबंधों से
समृद्ध यह पुस्तक उर्दू साहित्य की व्यापक पहचान और महत्त्व को रेखांकित
करती है।
इस पुस्तक में जहाँ एक ओर बीसवीं शताब्दी में उर्दू भाषा और साहित्य की वैचारिक अवधारणाओं के उद्भव, विकास, प्रभाव और वर्तमान स्थिति का अध्ययन-विवेचन प्रस्तुत करने वाला आलेख शामिल हैं, वही दूसरी ओर इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखते उर्दू साहित्य में उत्तर आधुनिकता की अवधारणा के कुछ उज्जवल आयामों की तलाश करने वाला आलेख भी संगृहीत है। इसके अन्य आलेखों में उर्दू की तमाम प्रचलित विधाओं-गजल, नज्म, उपन्यास, कहानी, नाटक, आलोचना, जीवनी, आत्मकथा, पत्र, यात्रावृत्त, हास्य-व्यंग्य, रेखाचित्र आदि में लिखित उर्दू साहित्य की विवेचना की गई है तथा उनकी आगामी संभावनाओं को निर्देशित किया गया है। उर्दू में शोध-कार्य तथा रंगमंच की विकास-यात्रा को दर्शानेवाले आलेखों के साथ-साथ उर्दू बाल-साहित्य की पड़ताल करने वाला आलेख भी इस पुस्तक में संगृहीत है।
हमें विश्वास है कि प्रस्तुत अनूदित कृति के माध्यम से वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र का समुत्सुक पाठक वर्ग बीसवीं शताब्दी के उर्दू साहित्य परिदृश्य से परिचित हो सकेगा तथा अध्येता इससे समुचित रूप से लाभान्वित हो सकेंगे।
इस पुस्तक में जहाँ एक ओर बीसवीं शताब्दी में उर्दू भाषा और साहित्य की वैचारिक अवधारणाओं के उद्भव, विकास, प्रभाव और वर्तमान स्थिति का अध्ययन-विवेचन प्रस्तुत करने वाला आलेख शामिल हैं, वही दूसरी ओर इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखते उर्दू साहित्य में उत्तर आधुनिकता की अवधारणा के कुछ उज्जवल आयामों की तलाश करने वाला आलेख भी संगृहीत है। इसके अन्य आलेखों में उर्दू की तमाम प्रचलित विधाओं-गजल, नज्म, उपन्यास, कहानी, नाटक, आलोचना, जीवनी, आत्मकथा, पत्र, यात्रावृत्त, हास्य-व्यंग्य, रेखाचित्र आदि में लिखित उर्दू साहित्य की विवेचना की गई है तथा उनकी आगामी संभावनाओं को निर्देशित किया गया है। उर्दू में शोध-कार्य तथा रंगमंच की विकास-यात्रा को दर्शानेवाले आलेखों के साथ-साथ उर्दू बाल-साहित्य की पड़ताल करने वाला आलेख भी इस पुस्तक में संगृहीत है।
हमें विश्वास है कि प्रस्तुत अनूदित कृति के माध्यम से वृहत्तर हिन्दी क्षेत्र का समुत्सुक पाठक वर्ग बीसवीं शताब्दी के उर्दू साहित्य परिदृश्य से परिचित हो सकेगा तथा अध्येता इससे समुचित रूप से लाभान्वित हो सकेंगे।
भूमिका
पिछले कई वर्षों में मेरी कोशिश रहती है कि अपने अधूरे कामों को निपटाऊँ
या जो काम वर्षों पहले हो चुके हैं और अभी तक प्रकाशित नहीं हुए है,
उन्हें प्रकाशन के लिए तैयार कर दूँ:
कारे-दुनिया कसे तमाम न कर्द
हरचे गीरीद मुख़्तसर गीरीद
हरचे गीरीद मुख़्तसर गीरीद
यह वास्तविकता है कि मैं नई ज़िम्मेदारियाँ स्वीकार करने से
कतराता
हूँ फिर भी कुछ संबंधों की नुवय्यत ऐसी होती है, कोई बहाना नहीं सूझता
इससे निजी काम का हर्ज तो होता ही है, दूसरे काम भी पिछड़ जाते हैं,
बहरहाल, ईं हम अंदर आशिक़ी...हाल ही में तो क़ौमी काउंसिल के लिए
Let’s Learn Urdu और उर्दू कैसे लिखें के नाम से उर्दू पढ़ने
वालों
के लिए अंग्रेज़ी और हिंदी में चार किताबों का सेट तैयार किया। यह मुकम्मल
हो गया तो फ़रमाइश हुई कि इतना किया है
तो अब Reading in literary Urdu Prose का संशोधन-परिवर्द्धित संस्करण भी तैयार कर दूँ। यह किताब पैंतीस वर्ष पहले विस्कांसिन यूनीवर्सिटी, मेडसन से प्रकाशित हुई थी और एक मुद्दत से अनुपलब्ध थी। काम तो मैंने पूरा कर दिया, लेकिन इसमें एक-डेढ़ साल निकल गया, और भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता के आग्रह पर ‘‘बीसवीं सदी उर्दू अदब’’
शीर्षक से एक ग्रंथ संपादित करने का जो डौल डाला था, तो इस बीच इस प्रेरक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय कोलकाता से दिल्ली आ गए और एक अन्य संस्था के संबद्ध हो गए। इधर साहित्य अकादमी से मालूम हुआ कि इस ढ़ंग की किताब की उर्दू के अलावा हिन्दी और बाज़ दूसरी भारतीय भाषाओं में भी ज़रूरत है। अतएव मुझे आत्मसमर्पण करना पड़ा। सभी मित्रों का आभारी हूँ कि उन्होंने सहयोग किया और पूरे मन से आलेख लिखे। हरचंद कि सब आलेखों में तमाम बातों की पाबंदी नहीं
की जा सकी, फिर भी ज़रूरी जानकारियों का समावेश कर लिया गया है। चूँकी विचारधाराओं का ज़िक्र शुरू के निबंध में आ गया है, और इक्कीसवीं सदी का आरंभ हो चुका है, मैंने अपना आलेख अंत में शामिल किया है, ताकि जहाँ तक संभव हो विचार-विमर्श का दायरा मुकम्मल हो जाए।
मैं उर्दू परामर्श मंडल के तत्कालीन संयोजक श्री बलराज कोमल का हृदय से आभारी हूँ। उम्मीद है कि इस किताब से एक ज़रूरत पूरी होगी और यह इस ढंग की दूसरी किताबों की आधार-भूमि साबित होगी।
तो अब Reading in literary Urdu Prose का संशोधन-परिवर्द्धित संस्करण भी तैयार कर दूँ। यह किताब पैंतीस वर्ष पहले विस्कांसिन यूनीवर्सिटी, मेडसन से प्रकाशित हुई थी और एक मुद्दत से अनुपलब्ध थी। काम तो मैंने पूरा कर दिया, लेकिन इसमें एक-डेढ़ साल निकल गया, और भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता के आग्रह पर ‘‘बीसवीं सदी उर्दू अदब’’
शीर्षक से एक ग्रंथ संपादित करने का जो डौल डाला था, तो इस बीच इस प्रेरक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय कोलकाता से दिल्ली आ गए और एक अन्य संस्था के संबद्ध हो गए। इधर साहित्य अकादमी से मालूम हुआ कि इस ढ़ंग की किताब की उर्दू के अलावा हिन्दी और बाज़ दूसरी भारतीय भाषाओं में भी ज़रूरत है। अतएव मुझे आत्मसमर्पण करना पड़ा। सभी मित्रों का आभारी हूँ कि उन्होंने सहयोग किया और पूरे मन से आलेख लिखे। हरचंद कि सब आलेखों में तमाम बातों की पाबंदी नहीं
की जा सकी, फिर भी ज़रूरी जानकारियों का समावेश कर लिया गया है। चूँकी विचारधाराओं का ज़िक्र शुरू के निबंध में आ गया है, और इक्कीसवीं सदी का आरंभ हो चुका है, मैंने अपना आलेख अंत में शामिल किया है, ताकि जहाँ तक संभव हो विचार-विमर्श का दायरा मुकम्मल हो जाए।
मैं उर्दू परामर्श मंडल के तत्कालीन संयोजक श्री बलराज कोमल का हृदय से आभारी हूँ। उम्मीद है कि इस किताब से एक ज़रूरत पूरी होगी और यह इस ढंग की दूसरी किताबों की आधार-भूमि साबित होगी।
गोपीचंद नारंग
बीसवीं शताब्दी की वैचारिक अवधारणाएँ और उर्दू साहित्य
निज़ाम सिद्दीक़ी़
पारंपरिक प्रगतिशीलता और पारंपारिक आधुनिकता के मंसूबों के समाधि-लेख
लिखने का समय आ गया है। इन दिनों उत्तर आधुनिकतावादी, उत्तर नव
उपनिवेशवादी अश्वेत चेतना के पक्षधर, लातीनी अमेरिकी साहित्य, दक्षिण
एशियाई साहित्य और प्रायः एशियाई अफ्रीकी साहित्य और नए युग की
सृजनात्मकता के अलमबरदारों की साझा घोषणा है कि घोषणा है कि आधुनिकता का
प्रोजेक्ट पूरे तौर पर नाकामयाब हो गया है। आधुनिकता महज एक मिथक है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में बीसवीं सदी के आरंभ यानी 1904 ईं में ही महात्मा गाँधी के शोषणमूलक पाश्चात्य ढंग की प्रगति और विकास का समाधि लेख बेधड़क लिख दिया था, ‘‘भारत की मुक्ति उस संपत्ति को नष्ट कर देने में है, जो कुछ भी उसने पिछले पचास सालों में अर्जित की है।’’
राष्ट्रीय महाख्यान में आंबेडकर ने सबसे पहले पाश्चात ढ़ंग की प्रगति और विकास के मॉडल को विखंडित किया और नए बदले हुए सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रोजेक्ट को खुल्लम खुल्ला पेश किया। यह इन दो, बड़ी हस्तियों का ‘सामना’ दोनों के लिए क्रांतिधर्मी था। आंबेडकर से गाँधी ने दलित, आदिवासी, आदि द्रविड़ और नारी मुक्ति का विवेक ग्रहण किया और गाँधी जी के कारण आंबेडकर ने आध्यात्म, धर्म के वास्तविक अर्थ और महत्त्व को अपनी रूह का ज़िन्दा
और धड़कता हुआ हिस्सा बनाया। यद्यपि इस पारस्परिक प्रभावग्रहण के दूरगामी सिलसिलों या दूरगामी अंदेशों को दोनों पक्षों ने खुले मन से स्वीकार नहीं किया, लेकिन नए भारत के निर्माण में दोंनों एक-सी राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों के सामंजस्य के लिए प्रयासरत रहे। रोज़ी-रोटी को लेकर इन विचारों और संस्थाओं में जहाँ आंतरिक एकता और सहानुभूति विद्यमान है, वहाँ दूसरी तरफ़ आध्यात्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक नैर्रतर्य में भी भावात्मक सामंजस्य स्पष्टतः दिखाई देता है।
ठीक ऐसे ही उत्तर आधुनिकतावादी, उत्तर नव-उपवेशवादी और अश्वेत चेतना के लेखकों के क्रांतिकारी कृतित्व और प्रतिरोध के मूल में नीत्शे, टॉल्स्टॉय और फ़्लावेयर की वैचारिक अनुगूँज सक्रिय है। लेकिन वे लोग इस अर्थपूर्ण परस्पर प्रभाव को उदारहृदय से अस्वीकार नहीं करते हैं महात्मा गाँधी का अछतोद्घार और आंबेडकर का विखंडन या विरचना का सुचिन्तित सुझाव हमारे विगत पचास वर्षों के ठंडे-गर्म अनुभवों के सिलसिले में कितना प्रासंगिक और उपयोगी है ?
राष्ट्रीय आंदोलन और नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू और अबुल कलाम आज़ाद सविनय अवज्ञा और भारतीय परंपरा के पक्षधर जयप्रकाश नारायण और मीरा बहन सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा की रक्षा से संबन्धित आंदोलन के मार्गदर्शक एथीथास और पेरियार ई. वी. रामास्वामी और समाजवाद के उन्नायक राम मनोहर लोहिया ने मनुष्य की बहुमुखी प्रगति के न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में भारतीय जनता से रोटी, कपड़ा और मकान का वादा किया था।
लेकिन हम इस वादे को पूरा करने में बुरी तरह नाकामयाब हुए हैं। यद्यपि हम अपने परमाणु बम की बावत ऊँचे स्वर में दावे कर सकते हैं। स्वतंत्रता से वंचित निर्धन वर्ग के लिए यह एक चिन्ताजनक नव उपनिवेशवादी परिस्थिति है। आजकल दलित, आदिवासी, आदि द्रविड़ और पारिया (अछूत) पारंपरिक प्रगतिशीलता और आधुनिकता के ज़रिए पीसे, रौंदे और कुचले जाते हैं। सामाजिक न्याय और आत्मसम्मान की रक्षासंबंधी आंदोलन के प्रवर्तक दलित चिन्तकों, मनीषियों और ग़ैर-ब्राह्मण बुद्धिजीवियों के अनवरत वैचारिक संघर्ष की गाथा को एक गैर-ब्राह्मण हज़ाराः एथीथास से पेरियार तक शीर्षक पुस्तक में लेखक द्वय गीता राव और एस, वी राजादुरै ने शब्दबद्ध कर दिया है। यह वर्ग-समाज के अध्ययन और अकुलतावादी इतिहास की दृष्टि से एक विचारपूर्ण कार्य है। इस पुस्तक की भूमिका के अंतिम पैराग्राफ़ में लेखकद्वय ने पुस्तक के प्रयोजन को स्पष्ट
कर दिया हैः
‘‘हमने इस किताब में यह दिखाने और बहस करने की कोशिश की है कि एथीथास, पेरियार फूले आंबेडकर के व्यक्तित्व असाधारण मानवीय समवेदना (Empathy) और गहन कल्पनाशीलता से संपन्न थे। वे अपने समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय, वेदना और निकृष्ट अज्ञानता को लेकर बहुत संवेदनशील थे।, इस असाधारण एहसास की तीव्रता ने उनके मानवीय बोध को एक सुदढ़ आधार प्रदान किया बीसवीं शताब्दी की वैचारिक अवधारणाएँ और उर्दू साहित्य
था और इसी के रहते हुए उनके सामाजिक अध्ययन संबंधी विश्लेषण और निष्कर्ष इतने विश्वसनीय साबित हो सके।’’
इस पुस्तक की महत्ता न सिर्फ़ इसके रचनात्मक संक्षिप्त आख्यानों से प्रकट होती है, बल्कि आदि द्रविड़ों, पंचमों, गैर-ब्राह्मण (पारिया) अछूतों और अन्य निम्न वर्गों के आंदोलनों और उनके जीवन को कारुणिक घटनाओं के विवरणों के माध्यम से स्पष्ट होती है। इस पुस्तक में एथीथास, एम, माली लामानी नामानी, थ्यागोरमा छेती, डॉ. टी एम. नायर (ग़ैर-ब्राह्मण राजाज्ञा के प्रमुख लेखक) के आदर्शों और विचारों का सटीक और वस्तुपरक आकलन किया गया है।
यूनेस्को द्वारा प्रदान की गई ‘नए युग के अग्रदूत’ की उपाधि और दक्षिण एशिया के सुकरात पेरियार ई.वी. रामास्वामी (1879-1973 ई.) पर स्वतंत्र अध्याय विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करते हैं। भारत सरकार ने अपने इस गौरवशाली सपूत को निहायत अरुचि के साथ रस्मी तौर पर दिनांक 17 नवंबर 1978 को डाक टिकट जारी करके श्रद्धांजलि अर्पित की। लेकिन पेरियार के पंचानवे वर्षीय जीवन के अनवरत संघर्ष की गाथा का अध्ययन करते हुए मन में बेइख़्तियार यह प्रशन उठता है कि निचले वर्गों के लिए उनकी महान् सेवाएँ क्या शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की अधिकारी नहीं थी ? उनका जुझारू व्यक्तित्व और सक्रिय साहित्यिक सेवाएँ पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, इतिहास समाजशास्त्र, संस्कृति और
ललितकलाओं के मर्मज्ञों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।
हिन्दुस्तान 2020: एक ख़्वाबे इर्फानः नई सहस्त्राब्दी के लिए डॉ. अबुल कलाम और स्वामी सुंदर राजन का सराहनीय संयुक्त प्रयास है। सृजनशीलता विज्ञान, कला और अध्यात्म का भी मूल आधार है। कला इनके बीच एक सतरंगा पुल है। दूसरी उल्लेखनीय पुस्तक डॉ. रफीक़ ज़करिया की रचना है, जो व्यापक मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है।
इसमें अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच एक नए संतुलन को ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है।
गहन अंतर्दृष्टि और सूझ-बूझ से संपन्न ये पुस्तकें स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में बीसवीं सदी की विचारधाराओं और संकल्पनाओं का समग्र आकलन प्रस्तुत करती हैं। आजकल उर्दू साहित्य और संकल्पनाओं का समग्र आकलन प्रस्तुत करती हैं। आजकल उर्दू साहित्य और आलोचना नई सहस्त्राब्दी के एक नये वैचारिक और सौन्दर्यात्मक मॉडल (पैराडाइम शिफ़्ट) की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसाँ ने कहा था, ‘‘हम अपने अतीत के सिर्फ़ एक छोटे-से हिस्से के साथ सोचते हैं, लेकिन इसके विपरीत हम जब कोई ख़्वाहिश करते हैं और कार्य करते हैं तो अपने पूरे अतीत के साथ, अपनी आत्मा के मूल स्वरूप के साथ उसमें निमग्न हो जाते हैं।’’
कोई भी चिन्तन प्रणाली, जो महज़ वास्तविकता को महत्त्व देती है और स्वप्न को नदरअंदाज करती है और अतीत के वाड्मय से लाभान्वित होती, निश्चय ही नाकामयाब होने के लिए मजबूर है।
कैसे कोई मॉडल ऐसी संकीर्ण दृष्टि के साथ काम कर सकता है ? कोई भी सार्थक संकल्पना अपने लोगों के अतीत के व्यापक बोध, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धारणाओं के सम्यक ज्ञान और विविध परंपराओं से समीपी परिचय के अभाव में कैसे अस्तित्व में आ सकती है ? जैसा कि कोराह मैथ्यू का कथन है,
‘‘कोई मॉडल जो अपने अवाम से संबंधित मालूमात की उपेक्षा करके चलता है, वह कभी भी रुचिकर और ग्राह्य नहीं हो सकता है। हम कोई वैचारिक और सौन्दर्यात्मक मॉडल अवाम के दीर्घकालिक अनुभवों और सदियों से संचित ज्ञानराशि की राख पर कभी निर्मित नहीं कर सकते हैं और न ही उस अवाम के आत्म सम्मान और राष्ट्रीय चेतना को कुचला जा सकता है। वह विशिष्ट मार्ग जो हम चुनते हैं, वह एक विशेष प्रकार की सामाजिक संरचना, संस्कृति और आलोचनात्मक रवैयों और व्यवहारों को सुनिश्चित करता है। हम उसके साथ जीते हैं और मरते हैं।’’
बहुत सारे देसी क़बीले अनेक धर्म जैसे हिन्दू, जैन और बौद्ध धरती को पवित्र मानते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके पालने में जिन संस्कृतियों, मूल्यों, साहित्यों और रचना-शैलियों ने आँखें खोली हैं और पली-बढी हैं, उन्होंने प्रकृति के साथ एक पवित्र अस्तित्व की भाँति आचरण किया और अपने निजी व राष्ट्रीय हितों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं किया, बल्कि हमेशा उनकी सुरक्षा के प्रयास किए। उर्वरता की कल्पना एक प्राचीन धारणा है, जिसका उल्लेख प्राचीन वाड़मय की किसी भी स्तरीय पुस्तक में मिल सकता है,
मेरी दृष्टि में धरती एक अनेक स्तरीय है। अस्तित्व विषयक धारणाएँ माया, जन्म, मोक्ष और ‘धरती माता’ साहित्य एवं संस्कृति का अस्थि-मांस है। जीवन और साहित्य के विकास में सांस्कृतिक जड़ों की अर्थवत्ता और महत्ता उस सुदृढ नींव की भाँति है, जिस पर जीवन और साहित्य का पूरा महल खड़ा होता है।
लेकिन श्वेत नस्ल के लोगों की धार्मिक आस्थाएँ यहूदी और नसरानी विश्वासों पर टिकी हुई हैं, जो एकदम भिन्न है। उनका विश्वास है कि मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए पैदा हुआ है। प्रकृति-विजय से दूसरे मनुष्य पर प्रभुत्व क़ायम करने तक उनके शोषणमूलक दर्शन का विकास हुआ था। 1914 ई. तक दुनिया के विस्तार का 84.4 प्रतिशत भाग यूरोपवासियों द्वारा उपवेशों में बदला जा चुका था। सेसल रोड ने इस मॉडल को बाबत सटीक बात कही हैः
‘‘हमें हर सूरत में नया भूभाग हासिल करना चाहिए, जिससे हम आसानी से कच्चा माल हासिल कर सकते हैं और इसी के साथ सस्ते श्रम का भी शोषण कर सकते हैं। उपनिवेश हमारी फैक्ट्रियों में पैदा किए गए फालतू माल के भंडार भी उपलब्ध कराएँगे।’’
वर्तमान में भी प्रगति और विकास का यह मॉडल नहीं बदला है। यह मॉडल नए रूपों में भूमंडलीय और उदारवाद के साथ हमारा पीछा कर रहा है। पारनान ने इसे रेखांकित किया हैः
‘‘विकसित राष्ट्रों ने तीसरी दुनिया के देशों की मदद करने के लिए और प्रगति एवं विकास के इसी मार्ग पर आगे बढाने के लिए एक नया मिशन अपने लिए तलाश किया है, जिस पर पश्चिम ने पिछड़े देशों का सदियों से नेतृत्व किया है’’
महज़ एक उड़ती निगाह से पहचान की जा सकती है कि जो कुछ भी विकासशील देशों में हो रहा है, वहां उपनिवेशवादी दौर और बाद की आज़ादी के युग में हो रहा है, उपनिवेशवादी शासकों की जगह देशी उपवेशवादियों ने ली है।
लाज़िमी तौर पर ग़रीब और अमीर के बीच की खाई श्रमिकबहुल देशों और तीसरी दुनिया के लोगों में बढ़ी है, बल्कि यह गरीब जनता के बीच भी देखी जाती है। अनिवार्य रूप से यह एक प्रच्छन्न तारतम्य की कहानी है। यह शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, उपेक्षा, तिरस्कार, असहायता और हिंसा के नैरंतर्य की त्रासद गाथा है। अभिजन वर्ग के शासक भारत में और अनेक विकासशील देशों (थाईलैंड, मलेशिया, डंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और पाकिस्तान) में अपने जीवनदर्शन, जीवनशैली, विचारधारा और आचरण-पद्धति में वैश्विक अभिजन वर्ग से बहुत समानता रखते हैं,
मुक्त व्यापार और खुला बाज़ार एक चौरस मैदान में खुली प्रतिस्पर्द्धा की दावत देते हैं। बेशक इसमें और न्याय की बात क्या हो सकती है ? लेकिन जब ताक़तवर एक कमज़ोर से खेल के चौरस मैदान में मुक़ाबला करता है तो परिणाम सूर्य के प्रकाश की भाँति पहले ही स्पष्ट रहता है।
असंतुलित शक्तियों के पारस्परिक संबंधों में जो विरोधाभास है, वह वैश्विक स्तर पर विकास शील देशों में मौजूद है। अभिजन वर्ग के शासक अपनी आबादी के बड़े हिस्से के लिए शांति और समृद्धि की कामना कदापि नहीं कर सकते। उन्हें अपने गुप्त हितों की पूर्ति के लिए असंतुलित शक्तियों में उचित तालमेल रखना पड़ता है।
आज दुनिया के विकासशील देशों की बहुसंख्यक आबादी के लिए (भारत अपवाद नहीं) संरचनात्मक सुधार और सहायता संबंधी पैकेज (SAP) जीवन की क्रूर सच्चाई है। 1980 ई. के आरंभिक दिनों में शुरू हुई विश्व बैंक की यह नीति (बाद में संशोधित IMF के मज़बूत पैकेज के ज़रिए) विकासशील देशों
के आंतरिक और बाह्य हिसाब-किताब में असंतुलन ठीक करने के लिए अकाल्पनिक तरकीब (मॉडल) है। अत्याचार यह है
कि सैप (SAP) की ज़िम्मेदार एजेंसियाँ मतदान के अधिकार के चलते हुए अमीर देशों द्वारा नियंत्रित की जाती हैं। वे ग़रीब देशों में बिना शिरकत एक बाह्य तत्त्व की तरह काम करते हैं।
सबसे बड़ा अत्याचार यह है कि न तो विश्व बैंक और न अंतर्राष्टीय मुद्राकोष अमीर देशों से असहमति जताने की ताक़त रखता है, न अपने कार्यक्रम और नीतियों के संशोधन में कोई भूमिका अदा करता है और न उसकी गतिविधियों को प्रभावित करने की कोई कोशिश करता है। समकालीन विश्व अर्थव्यवस्था के पवित्र संगठन (विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं WTO) व्यापारिक समस्याओं को लेकर एक साझा दर्शन के आधार पर काम कर रहे हैं।
पूर्व एशियाई देशों के विभ्रम का कारण वास्तव में भारी मुनाफ़े की उम्मीद से किए जानेवाले पूँजी निवेश में तलाश किया जा सकता है। पहला शिकार थाईलैंड था, जहाँ से ये छूत बड़ी तीव्रता के साथ इंडोनेशिया और मलेशिया की ओर फैली और अंत में उसने दक्षिण कोरिया को अपनी लपेट में ले लिया। वास्तव में इन तमाम मुल्कों ने अल्पकालिक बाह्म पूँजी के द्वारा दीर्घकालिक घरेलू ख़र्चों को पूरा करने पर हद से ज़्यादा भरोसा किया था, जिसके कारण पूर्व एशियाई देशों का
विभ्रम बढ़ता जा रहा है। लिहाज़ा SAP की नीतियों पर खुली चर्चा बहुत सरगर्म हो गई है। SAP के बड़े पदाधिकारी अपने मुवक्किल देशों की घरेलू अर्थव्यवस्था को निचोड़ने के लिए ऊँची सूद की दर पर ऋण और सरकारी बजट में कटौती की व्यवस्था करते रहे हैं। इस प्रसंग में अर्थशास्त्र के कुछ मूर्द्धन्य विद्वानों की भविष्यवाणियाँ शब्दशः सही साबित हुई हैं। तीन देश (थाईलैंड, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया) अंतर्राष्ट्रीय मद्राकोष के सीधे संरक्षण में रहने के कारण गहरी अँधेरी गुफा में डूब गए हैं।
लातीनी अमेरिका, अफ्रीका और एशिया पर सैप (SAP) की संक्षिप्त रचनात्मक घोषणा के अध्ययन से मेरी समझ में यह बात आई कि लगभग साठ देशों में से सिर्फ़ दो देश (भारत और चीन) इस आर्थिक तूफ़ान के तेज़ बगूलों में कुछ हद तक टिकाऊ साबित हुए हैं, जिसने एशिया को निशाना बनाया था। ये दोनों देश भी विश्व बैंक के संरचनात्मक सुधार और
सहायता संबंधी पैकेज पर निर्भर रहने के इच्छुक रहे हैं। चीन की सरकार ने इस तूफ़ान का आत्मसम्मान की रक्षा के रूप में सामना किया और अपनी मुद्रा रेन मिन बी का अवमूल्यन नहीं होने दिया। चीन की हुकूमत दावा करती है कि एशिया की अर्थव्यवस्था की बहाली और पायदान के लिए यह एक स्वावलंबनपूर्ण प्रयास है। भारत का व्यापारिक घाटा उस बिन्दु तक पहुँच जाता है, जहाँ 1991 ई, के अँधेरे साये उभर रहे हैं। कुछ घरेलू उद्योग अपनी रक्षा और बचाव के लिए शोर-शराबा बरपा किए हुए हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में बीसवीं सदी के आरंभ यानी 1904 ईं में ही महात्मा गाँधी के शोषणमूलक पाश्चात्य ढंग की प्रगति और विकास का समाधि लेख बेधड़क लिख दिया था, ‘‘भारत की मुक्ति उस संपत्ति को नष्ट कर देने में है, जो कुछ भी उसने पिछले पचास सालों में अर्जित की है।’’
राष्ट्रीय महाख्यान में आंबेडकर ने सबसे पहले पाश्चात ढ़ंग की प्रगति और विकास के मॉडल को विखंडित किया और नए बदले हुए सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रोजेक्ट को खुल्लम खुल्ला पेश किया। यह इन दो, बड़ी हस्तियों का ‘सामना’ दोनों के लिए क्रांतिधर्मी था। आंबेडकर से गाँधी ने दलित, आदिवासी, आदि द्रविड़ और नारी मुक्ति का विवेक ग्रहण किया और गाँधी जी के कारण आंबेडकर ने आध्यात्म, धर्म के वास्तविक अर्थ और महत्त्व को अपनी रूह का ज़िन्दा
और धड़कता हुआ हिस्सा बनाया। यद्यपि इस पारस्परिक प्रभावग्रहण के दूरगामी सिलसिलों या दूरगामी अंदेशों को दोनों पक्षों ने खुले मन से स्वीकार नहीं किया, लेकिन नए भारत के निर्माण में दोंनों एक-सी राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों के सामंजस्य के लिए प्रयासरत रहे। रोज़ी-रोटी को लेकर इन विचारों और संस्थाओं में जहाँ आंतरिक एकता और सहानुभूति विद्यमान है, वहाँ दूसरी तरफ़ आध्यात्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक नैर्रतर्य में भी भावात्मक सामंजस्य स्पष्टतः दिखाई देता है।
ठीक ऐसे ही उत्तर आधुनिकतावादी, उत्तर नव-उपवेशवादी और अश्वेत चेतना के लेखकों के क्रांतिकारी कृतित्व और प्रतिरोध के मूल में नीत्शे, टॉल्स्टॉय और फ़्लावेयर की वैचारिक अनुगूँज सक्रिय है। लेकिन वे लोग इस अर्थपूर्ण परस्पर प्रभाव को उदारहृदय से अस्वीकार नहीं करते हैं महात्मा गाँधी का अछतोद्घार और आंबेडकर का विखंडन या विरचना का सुचिन्तित सुझाव हमारे विगत पचास वर्षों के ठंडे-गर्म अनुभवों के सिलसिले में कितना प्रासंगिक और उपयोगी है ?
राष्ट्रीय आंदोलन और नेता पंडित जवाहर लाल नेहरू और अबुल कलाम आज़ाद सविनय अवज्ञा और भारतीय परंपरा के पक्षधर जयप्रकाश नारायण और मीरा बहन सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा की रक्षा से संबन्धित आंदोलन के मार्गदर्शक एथीथास और पेरियार ई. वी. रामास्वामी और समाजवाद के उन्नायक राम मनोहर लोहिया ने मनुष्य की बहुमुखी प्रगति के न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में भारतीय जनता से रोटी, कपड़ा और मकान का वादा किया था।
लेकिन हम इस वादे को पूरा करने में बुरी तरह नाकामयाब हुए हैं। यद्यपि हम अपने परमाणु बम की बावत ऊँचे स्वर में दावे कर सकते हैं। स्वतंत्रता से वंचित निर्धन वर्ग के लिए यह एक चिन्ताजनक नव उपनिवेशवादी परिस्थिति है। आजकल दलित, आदिवासी, आदि द्रविड़ और पारिया (अछूत) पारंपरिक प्रगतिशीलता और आधुनिकता के ज़रिए पीसे, रौंदे और कुचले जाते हैं। सामाजिक न्याय और आत्मसम्मान की रक्षासंबंधी आंदोलन के प्रवर्तक दलित चिन्तकों, मनीषियों और ग़ैर-ब्राह्मण बुद्धिजीवियों के अनवरत वैचारिक संघर्ष की गाथा को एक गैर-ब्राह्मण हज़ाराः एथीथास से पेरियार तक शीर्षक पुस्तक में लेखक द्वय गीता राव और एस, वी राजादुरै ने शब्दबद्ध कर दिया है। यह वर्ग-समाज के अध्ययन और अकुलतावादी इतिहास की दृष्टि से एक विचारपूर्ण कार्य है। इस पुस्तक की भूमिका के अंतिम पैराग्राफ़ में लेखकद्वय ने पुस्तक के प्रयोजन को स्पष्ट
कर दिया हैः
‘‘हमने इस किताब में यह दिखाने और बहस करने की कोशिश की है कि एथीथास, पेरियार फूले आंबेडकर के व्यक्तित्व असाधारण मानवीय समवेदना (Empathy) और गहन कल्पनाशीलता से संपन्न थे। वे अपने समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय, वेदना और निकृष्ट अज्ञानता को लेकर बहुत संवेदनशील थे।, इस असाधारण एहसास की तीव्रता ने उनके मानवीय बोध को एक सुदढ़ आधार प्रदान किया बीसवीं शताब्दी की वैचारिक अवधारणाएँ और उर्दू साहित्य
था और इसी के रहते हुए उनके सामाजिक अध्ययन संबंधी विश्लेषण और निष्कर्ष इतने विश्वसनीय साबित हो सके।’’
इस पुस्तक की महत्ता न सिर्फ़ इसके रचनात्मक संक्षिप्त आख्यानों से प्रकट होती है, बल्कि आदि द्रविड़ों, पंचमों, गैर-ब्राह्मण (पारिया) अछूतों और अन्य निम्न वर्गों के आंदोलनों और उनके जीवन को कारुणिक घटनाओं के विवरणों के माध्यम से स्पष्ट होती है। इस पुस्तक में एथीथास, एम, माली लामानी नामानी, थ्यागोरमा छेती, डॉ. टी एम. नायर (ग़ैर-ब्राह्मण राजाज्ञा के प्रमुख लेखक) के आदर्शों और विचारों का सटीक और वस्तुपरक आकलन किया गया है।
यूनेस्को द्वारा प्रदान की गई ‘नए युग के अग्रदूत’ की उपाधि और दक्षिण एशिया के सुकरात पेरियार ई.वी. रामास्वामी (1879-1973 ई.) पर स्वतंत्र अध्याय विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करते हैं। भारत सरकार ने अपने इस गौरवशाली सपूत को निहायत अरुचि के साथ रस्मी तौर पर दिनांक 17 नवंबर 1978 को डाक टिकट जारी करके श्रद्धांजलि अर्पित की। लेकिन पेरियार के पंचानवे वर्षीय जीवन के अनवरत संघर्ष की गाथा का अध्ययन करते हुए मन में बेइख़्तियार यह प्रशन उठता है कि निचले वर्गों के लिए उनकी महान् सेवाएँ क्या शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की अधिकारी नहीं थी ? उनका जुझारू व्यक्तित्व और सक्रिय साहित्यिक सेवाएँ पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, इतिहास समाजशास्त्र, संस्कृति और
ललितकलाओं के मर्मज्ञों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।
हिन्दुस्तान 2020: एक ख़्वाबे इर्फानः नई सहस्त्राब्दी के लिए डॉ. अबुल कलाम और स्वामी सुंदर राजन का सराहनीय संयुक्त प्रयास है। सृजनशीलता विज्ञान, कला और अध्यात्म का भी मूल आधार है। कला इनके बीच एक सतरंगा पुल है। दूसरी उल्लेखनीय पुस्तक डॉ. रफीक़ ज़करिया की रचना है, जो व्यापक मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित है।
इसमें अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच एक नए संतुलन को ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है।
गहन अंतर्दृष्टि और सूझ-बूझ से संपन्न ये पुस्तकें स्थानीय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में बीसवीं सदी की विचारधाराओं और संकल्पनाओं का समग्र आकलन प्रस्तुत करती हैं। आजकल उर्दू साहित्य और संकल्पनाओं का समग्र आकलन प्रस्तुत करती हैं। आजकल उर्दू साहित्य और आलोचना नई सहस्त्राब्दी के एक नये वैचारिक और सौन्दर्यात्मक मॉडल (पैराडाइम शिफ़्ट) की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गसाँ ने कहा था, ‘‘हम अपने अतीत के सिर्फ़ एक छोटे-से हिस्से के साथ सोचते हैं, लेकिन इसके विपरीत हम जब कोई ख़्वाहिश करते हैं और कार्य करते हैं तो अपने पूरे अतीत के साथ, अपनी आत्मा के मूल स्वरूप के साथ उसमें निमग्न हो जाते हैं।’’
कोई भी चिन्तन प्रणाली, जो महज़ वास्तविकता को महत्त्व देती है और स्वप्न को नदरअंदाज करती है और अतीत के वाड्मय से लाभान्वित होती, निश्चय ही नाकामयाब होने के लिए मजबूर है।
कैसे कोई मॉडल ऐसी संकीर्ण दृष्टि के साथ काम कर सकता है ? कोई भी सार्थक संकल्पना अपने लोगों के अतीत के व्यापक बोध, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धारणाओं के सम्यक ज्ञान और विविध परंपराओं से समीपी परिचय के अभाव में कैसे अस्तित्व में आ सकती है ? जैसा कि कोराह मैथ्यू का कथन है,
‘‘कोई मॉडल जो अपने अवाम से संबंधित मालूमात की उपेक्षा करके चलता है, वह कभी भी रुचिकर और ग्राह्य नहीं हो सकता है। हम कोई वैचारिक और सौन्दर्यात्मक मॉडल अवाम के दीर्घकालिक अनुभवों और सदियों से संचित ज्ञानराशि की राख पर कभी निर्मित नहीं कर सकते हैं और न ही उस अवाम के आत्म सम्मान और राष्ट्रीय चेतना को कुचला जा सकता है। वह विशिष्ट मार्ग जो हम चुनते हैं, वह एक विशेष प्रकार की सामाजिक संरचना, संस्कृति और आलोचनात्मक रवैयों और व्यवहारों को सुनिश्चित करता है। हम उसके साथ जीते हैं और मरते हैं।’’
बहुत सारे देसी क़बीले अनेक धर्म जैसे हिन्दू, जैन और बौद्ध धरती को पवित्र मानते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके पालने में जिन संस्कृतियों, मूल्यों, साहित्यों और रचना-शैलियों ने आँखें खोली हैं और पली-बढी हैं, उन्होंने प्रकृति के साथ एक पवित्र अस्तित्व की भाँति आचरण किया और अपने निजी व राष्ट्रीय हितों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का शोषण नहीं किया, बल्कि हमेशा उनकी सुरक्षा के प्रयास किए। उर्वरता की कल्पना एक प्राचीन धारणा है, जिसका उल्लेख प्राचीन वाड़मय की किसी भी स्तरीय पुस्तक में मिल सकता है,
मेरी दृष्टि में धरती एक अनेक स्तरीय है। अस्तित्व विषयक धारणाएँ माया, जन्म, मोक्ष और ‘धरती माता’ साहित्य एवं संस्कृति का अस्थि-मांस है। जीवन और साहित्य के विकास में सांस्कृतिक जड़ों की अर्थवत्ता और महत्ता उस सुदृढ नींव की भाँति है, जिस पर जीवन और साहित्य का पूरा महल खड़ा होता है।
लेकिन श्वेत नस्ल के लोगों की धार्मिक आस्थाएँ यहूदी और नसरानी विश्वासों पर टिकी हुई हैं, जो एकदम भिन्न है। उनका विश्वास है कि मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए पैदा हुआ है। प्रकृति-विजय से दूसरे मनुष्य पर प्रभुत्व क़ायम करने तक उनके शोषणमूलक दर्शन का विकास हुआ था। 1914 ई. तक दुनिया के विस्तार का 84.4 प्रतिशत भाग यूरोपवासियों द्वारा उपवेशों में बदला जा चुका था। सेसल रोड ने इस मॉडल को बाबत सटीक बात कही हैः
‘‘हमें हर सूरत में नया भूभाग हासिल करना चाहिए, जिससे हम आसानी से कच्चा माल हासिल कर सकते हैं और इसी के साथ सस्ते श्रम का भी शोषण कर सकते हैं। उपनिवेश हमारी फैक्ट्रियों में पैदा किए गए फालतू माल के भंडार भी उपलब्ध कराएँगे।’’
वर्तमान में भी प्रगति और विकास का यह मॉडल नहीं बदला है। यह मॉडल नए रूपों में भूमंडलीय और उदारवाद के साथ हमारा पीछा कर रहा है। पारनान ने इसे रेखांकित किया हैः
‘‘विकसित राष्ट्रों ने तीसरी दुनिया के देशों की मदद करने के लिए और प्रगति एवं विकास के इसी मार्ग पर आगे बढाने के लिए एक नया मिशन अपने लिए तलाश किया है, जिस पर पश्चिम ने पिछड़े देशों का सदियों से नेतृत्व किया है’’
महज़ एक उड़ती निगाह से पहचान की जा सकती है कि जो कुछ भी विकासशील देशों में हो रहा है, वहां उपनिवेशवादी दौर और बाद की आज़ादी के युग में हो रहा है, उपनिवेशवादी शासकों की जगह देशी उपवेशवादियों ने ली है।
लाज़िमी तौर पर ग़रीब और अमीर के बीच की खाई श्रमिकबहुल देशों और तीसरी दुनिया के लोगों में बढ़ी है, बल्कि यह गरीब जनता के बीच भी देखी जाती है। अनिवार्य रूप से यह एक प्रच्छन्न तारतम्य की कहानी है। यह शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, उपेक्षा, तिरस्कार, असहायता और हिंसा के नैरंतर्य की त्रासद गाथा है। अभिजन वर्ग के शासक भारत में और अनेक विकासशील देशों (थाईलैंड, मलेशिया, डंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और पाकिस्तान) में अपने जीवनदर्शन, जीवनशैली, विचारधारा और आचरण-पद्धति में वैश्विक अभिजन वर्ग से बहुत समानता रखते हैं,
मुक्त व्यापार और खुला बाज़ार एक चौरस मैदान में खुली प्रतिस्पर्द्धा की दावत देते हैं। बेशक इसमें और न्याय की बात क्या हो सकती है ? लेकिन जब ताक़तवर एक कमज़ोर से खेल के चौरस मैदान में मुक़ाबला करता है तो परिणाम सूर्य के प्रकाश की भाँति पहले ही स्पष्ट रहता है।
असंतुलित शक्तियों के पारस्परिक संबंधों में जो विरोधाभास है, वह वैश्विक स्तर पर विकास शील देशों में मौजूद है। अभिजन वर्ग के शासक अपनी आबादी के बड़े हिस्से के लिए शांति और समृद्धि की कामना कदापि नहीं कर सकते। उन्हें अपने गुप्त हितों की पूर्ति के लिए असंतुलित शक्तियों में उचित तालमेल रखना पड़ता है।
आज दुनिया के विकासशील देशों की बहुसंख्यक आबादी के लिए (भारत अपवाद नहीं) संरचनात्मक सुधार और सहायता संबंधी पैकेज (SAP) जीवन की क्रूर सच्चाई है। 1980 ई. के आरंभिक दिनों में शुरू हुई विश्व बैंक की यह नीति (बाद में संशोधित IMF के मज़बूत पैकेज के ज़रिए) विकासशील देशों
के आंतरिक और बाह्य हिसाब-किताब में असंतुलन ठीक करने के लिए अकाल्पनिक तरकीब (मॉडल) है। अत्याचार यह है
कि सैप (SAP) की ज़िम्मेदार एजेंसियाँ मतदान के अधिकार के चलते हुए अमीर देशों द्वारा नियंत्रित की जाती हैं। वे ग़रीब देशों में बिना शिरकत एक बाह्य तत्त्व की तरह काम करते हैं।
सबसे बड़ा अत्याचार यह है कि न तो विश्व बैंक और न अंतर्राष्टीय मुद्राकोष अमीर देशों से असहमति जताने की ताक़त रखता है, न अपने कार्यक्रम और नीतियों के संशोधन में कोई भूमिका अदा करता है और न उसकी गतिविधियों को प्रभावित करने की कोई कोशिश करता है। समकालीन विश्व अर्थव्यवस्था के पवित्र संगठन (विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं WTO) व्यापारिक समस्याओं को लेकर एक साझा दर्शन के आधार पर काम कर रहे हैं।
पूर्व एशियाई देशों के विभ्रम का कारण वास्तव में भारी मुनाफ़े की उम्मीद से किए जानेवाले पूँजी निवेश में तलाश किया जा सकता है। पहला शिकार थाईलैंड था, जहाँ से ये छूत बड़ी तीव्रता के साथ इंडोनेशिया और मलेशिया की ओर फैली और अंत में उसने दक्षिण कोरिया को अपनी लपेट में ले लिया। वास्तव में इन तमाम मुल्कों ने अल्पकालिक बाह्म पूँजी के द्वारा दीर्घकालिक घरेलू ख़र्चों को पूरा करने पर हद से ज़्यादा भरोसा किया था, जिसके कारण पूर्व एशियाई देशों का
विभ्रम बढ़ता जा रहा है। लिहाज़ा SAP की नीतियों पर खुली चर्चा बहुत सरगर्म हो गई है। SAP के बड़े पदाधिकारी अपने मुवक्किल देशों की घरेलू अर्थव्यवस्था को निचोड़ने के लिए ऊँची सूद की दर पर ऋण और सरकारी बजट में कटौती की व्यवस्था करते रहे हैं। इस प्रसंग में अर्थशास्त्र के कुछ मूर्द्धन्य विद्वानों की भविष्यवाणियाँ शब्दशः सही साबित हुई हैं। तीन देश (थाईलैंड, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया) अंतर्राष्ट्रीय मद्राकोष के सीधे संरक्षण में रहने के कारण गहरी अँधेरी गुफा में डूब गए हैं।
लातीनी अमेरिका, अफ्रीका और एशिया पर सैप (SAP) की संक्षिप्त रचनात्मक घोषणा के अध्ययन से मेरी समझ में यह बात आई कि लगभग साठ देशों में से सिर्फ़ दो देश (भारत और चीन) इस आर्थिक तूफ़ान के तेज़ बगूलों में कुछ हद तक टिकाऊ साबित हुए हैं, जिसने एशिया को निशाना बनाया था। ये दोनों देश भी विश्व बैंक के संरचनात्मक सुधार और
सहायता संबंधी पैकेज पर निर्भर रहने के इच्छुक रहे हैं। चीन की सरकार ने इस तूफ़ान का आत्मसम्मान की रक्षा के रूप में सामना किया और अपनी मुद्रा रेन मिन बी का अवमूल्यन नहीं होने दिया। चीन की हुकूमत दावा करती है कि एशिया की अर्थव्यवस्था की बहाली और पायदान के लिए यह एक स्वावलंबनपूर्ण प्रयास है। भारत का व्यापारिक घाटा उस बिन्दु तक पहुँच जाता है, जहाँ 1991 ई, के अँधेरे साये उभर रहे हैं। कुछ घरेलू उद्योग अपनी रक्षा और बचाव के लिए शोर-शराबा बरपा किए हुए हैं।
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